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वह चोर एक भक्त था






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Title: वह चोर एक भक्त था

Author: विवेक ज्योति

Refrence: विवेक ज्योति



Article:

वह चोर एक भक्त था (विवेक-ज्योति पत्रिका से) स्वामी विवेकानन्द की जोसेफाइन मेक्लाउड नाम की एक अमेरिकन अनुयायी थीं । उन्हें प्रेम से लोग टेन्टिन कहते थे । अपनी भारत-यात्रा के समय वे बेलूड़ मठ के ‘गिरीश स्मृति भवन’ में रुकी हुई थीं । एक दिन गहरी रात में एक चोर टेन्टिन के कमरे में घुसा और उनके गले का हार छीनने की चेष्टा करने लगा । टेन्टिन ने जोर से चिल्लाया । आवाज सुनकर कुछ साधु एवं कर्मचारीगण वहाँ पहुँचे और चोर को पकड़ा । सबने ने चोर की जमकर पिटाई की और उसे रस्सी से बाँध दिया । भोर होते ही उसे एक चबूतरे पर बिठाया गया । उस समय रामकृष्ण मठ-मिशन के संघाध्यक्ष स्वामी शिवानन्द महाराज थे । स्वामी विवेकानन्द उन्हें ‘महापुरुष’ कहते थे, इसलिए संन्यासी-भक्तवृन्द के बीच वे ‘महापुरुष महाराज’ के नाम से जाने जाते थे । प्रतिदिन सुबह महापुरुष महाराज जप-ध्यान के बाद लाठी लेकर मठ-भवन के चारों ओर घूमकर देखते थे । यह उनका नित्य-अभ्यास था । उस दिन टहलते समय उन्होंने उस चोर को देखा । उन्होंने परिहास करते हुए चोर से कहा, ‘क्यों रे, क्या यहीं चोरी करने के लिए तुझे आना था? लड़के पारी-पारी से मार दें, तो तेरे प्राण ही चले जाएँगे ।’ इतना कहकर वे फिर टहलने चले गए । थोड़ी देर बाद वे अपने कमरे में आकर जलपान करने लगे । टेन्टिन भी महराज से मिलने आर्इं और गत रात्रि की घटना सुनाने लगीं, ‘महापुरुष महाराज, क्या आपने सुना है कि मेरे कमरे में एक चोर घुसा था? मुझे लगता है कि वह चोर एक भक्त ही था, क्योंकि अन्य वस्तुएँ होते हुए भी उसने केवल मेरे गले का हार चुराने की कोशिश की । आप तो जानते ही हैं कि उस हार में स्वामी विवेकानन्द का दिया हुआ लॉकेट था । मेरा विश्वास है कि चोर का प्रयोजन केवल स्वामीजी द्वारा प्रदत्त लॉकेट से ही था ।’’ महापुरुष महाराज तो सरलता की मूर्ति थे । उन्होंने टेन्टिन की बात पर विश्वास कर लिया । उन्होंने एक संन्यासी को आदेश दिया कि वे चोर को गंगा स्नान कराके उनके पास ले आए । संन्यासी भी हतप्रभ हो गए । जिस चोर को रात में पीटा गया था, उसको पुलिस को देने के बदले गंगा-स्नान कराने ले जाना !!! महापुरुष महाराज ने चोर के लिए एक हाथ का बुना हुआ और सुन्दर कपड़ा और उत्तरीय भेजा । चोर भी गंगा-स्नान करके उन कपड़ों को पहनकर मठ-भवन में स्वतन्त्र घूमने लगा । वह स्वेच्छा से महापुरुष महाराज को प्रणाम करने आया । महापुरुष महाराज ने बड़े प्रेम से उससे पूछा, ‘क्यों रे, तू साधु बनेगा?’ उसके बाद वह वहाँ से चला गया । महापुरुष महाराज के इस प्रश्न का क्या फल हुआ, इसका तो कुछ विवरण नहीं है, किन्तु महाराज के अहैतुक प्रेम से निस्सन्देह उसके जीवन में सकारात्मक परिवर्तन आया होगा ।


Author:     विवेक ज्योति