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जीवन्त ईश्वर की पूजा

आदर्श को पकड़े रहो

एकता की आवश्यकता

गुरु की आवश्यकता

भारत का भविष्य

श्रीकृष्ण का सन्देश






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Title: जीवन्त ईश्वर की पूजा

Author: स्वामी विवेकानन्द

Refrence: विवेक ज्योति



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समस्त उपासनाओं का यही सार है कि व्यक्ति पवित्र रहे और सदैव दूसरों का भला करे । वह मनुष्य जो शिव को निर्धन, दुर्बल तथा रुग्ण व्यक्ति में भी देखता है, वही सचमुच शिव की उपासना करता है, पर यदि वह उन्हें केवल मूर्ति में ही देखता है, तो उसकी उपासना अभी नितान्त प्रारम्भिक ही है । यदि किसी मनुष्य ने किसी एक निर्धन मनुष्य की सेवा-शुश्रूषा बिना जाति-पाँति अथवा ऊँच-नीच के भेद-भाव के, यह विचार कर की है कि उसमें साक्षात् शिव विराजमान है, तो शिव उस मनुष्य से उस दूसरे मनुष्य की अपेक्षा अधिक प्रसन्न होंगे, जो कि उन्हें केवल मन्दिर में ही देखता है । प्रत्येक नर-नारी सबको ईश्वर के ही समान देखो । तुम किसी की सहायता नहीं कर सकते, तुम्हें केवल प्रभु के सन्तानों की सेवा करने का ही अधिकार है, यदि भाग्यवान हो तो, स्वयं प्रभु की ही सेवा करो । ईश्वर के अनुग्रह से यदि तुम उसकी किसी सन्तान की सेवा कर सके, तो धन्य हो जाओगे । अपने को बहुत बड़ा मत समझो । तुम धन्य हो, क्योंकि सेवा करने का अधिकार तुमको मिला, दूसरों को नहीं । केवल पूजा के भाव से सेवा करो । हमें निर्धनों में ईश्वर को देखना चाहिए, अपनी ही मुक्ति के लिए उनके निकट जाकर हमें उनकी पूजा करनी चाहिए । निर्धन तथा दुखी लोग हमारी मुक्ति के साधन हैं, ताकि हम रोगी, पागल, कोढ़ी, पापी आदि स्वरूपों में विचरण करते हुए प्रभु की सेवा करके अपना उद्धार कर सकें । एक धनी व्यक्ति का एक बगीचा था जिसमें दो माली काम करते थे । एक माली बड़ा आलसी और कमजोर था, परन्तु जब कभी वह अपने मालिक को आते देखता, तो झट से उठकर खड़ा हो जाता और हाथ जोड़कर कहता, ‘मेरे स्वामी का मुख कितना सुन्दर है !’ और उनके सम्मुख नाचने लगता । दूसरा माली अधिक बातचीत नहीं करता था, उसे तो बस अपने काम से काम था । वह बड़े परिश्रम से बगीचे से विभिन्न प्रकार के फल-सब्जियाँ पैदा करके, उन्हें स्वयं अपने सिर पर रखकर, बहुत दूर मालिक के घर पहुँचा आता था । अब इन दो मालियों में से मालिक किसको अधिक चाहेगा? ठीक इसी प्रकार यह संसार एक बगीचा है, जिसके मालिक शिव हैं । यहाँ भी दो प्रकार के माली हैं – एक तो वह जो आलसी, अकर्मण्य तथा ढोंगी है और कभी-कभी शिव के सुन्दर नेत्र, नासिका तथा अन्य अंगों की प्रशंसा करता रहता है, और दूसरा ऐसा है जो शिव की सन्तान की, समस्त दीन-दुखी प्राणियों की और उनकी सारे सृष्टि की चिन्ता करता है । इन दो प्रकार के लोगों में से कौन शिव को अधिक प्रिय होगा? निश्चय ही, वही जो उनकी सन्तान की सेवा करता है । जो व्यक्ति अपने पिता की सेवा करना चाहता है, उसे सबसे पहले अपने भाइयों की सेवा करनी चाहिए, उसी प्रकार जो शिव की सेवा करना चाहता है, उसे पहले उनकी सन्तान की, विश्व के प्राणी-मात्र की सेवा करनी चाहिए । शास्त्रों में कहा भी गया है कि जो भगवान के सेवकों की सेवा करता है, वही उनका सर्वश्रेष्ठ सेवक है । यह बात सर्वदा ध्यान में रखनी चाहिए । मैं फिर कहता हूँ कि तुम्हें स्वयं शुद्ध रहना चाहिए तथा यदि कोई तुम्हारे पास सहायतार्थ आए, तो जितना तुमसे बन सके, उतनी उसकी सेवा अवश्य करनी चाहिए । यही सर्वश्रेष्ठ धर्म कहलाता है । इसी श्रेष्ठ कर्म की शक्ति से तुम्हारा चित्त शुद्ध हो जाएगा और फिर शिव, जो प्रत्येक हृदय में निवास करते हैं, प्रकट हो जाएँगे । ...परन्तु इसके विपरीत यदि कोई मनुष्य स्वार्थी है, तो चाहे उसने संसार के सब मन्दिरों के ही दर्शन क्यों न किए हो, चाहे वह सारे तीर्थों में क्यों न गया हो और चाहे रंग-भभूत रमाकर अपना रूप चीते-जैसा क्यों न बना लिया हो, वह शिव से दूर है – बहुत दूर है । तुम्हीं ईश्वर के सर्वश्रेष्ठ मन्दिर हो । मैं किसी मन्दिर, किसी प्रतिमा या किसी बाइबिल की उपासना न करके तुम्हारी ही उपासना करूँगा । कुछ लोग इतना परस्पर-विरोधी विचार क्यों रखते हैं? ...लोग कहते हैं, हम ठेठ प्रत्यक्षवादी हैं, ठीक है, परन्तु तुम्हारी उपासना करने की अपेक्षा और अधिक प्रत्यक्ष क्या हो सकता है? मैं तुम्हें देख रहा हूँ, तुम्हारा अनुभव कर रहा हूँ और जानता हूँ कि तुम ईश्वर हो । ...मनुष्य-देह में स्थित मानव-आत्मा ही एकमात्र उपास्य ईश्वर है । वैसे पशु भी भगवान के मन्दिर हैं, पर मनुष्य ही सर्वश्रेष्ठ मन्दिर है – ताजमहल जैसा । यदि मैं उसकी उपासना नहीं कर सका, तो अन्य किसी मन्दिर से कुछ भी उपकार नहीं होगा । जिस क्षण मैं प्रत्येक मनुष्य-देह रूपी मन्दिर में विराजित ईश्वर की उपलब्धि कर सकूँगा, जिस क्षण मैं प्रत्येक मनुष्य के सम्मुख भक्तिभाव से खड़ा हो सकूँगा और वास्तव में उसमें ईश्वर को देख सकूँगा, जिस क्षण मेरे अन्दर यह भाव आ जाएगा, उसी क्षण मैं सम्पूर्ण बन्धनों से मुक्त हो जाऊँगा । दूसरा प्रश्न यह है कि आत्मा या ईश्वर की प्राप्ति के बाद क्या होता है? ...धर्म की इस प्रत्यक्षानुभूति से जगत का पूरा उपकार होता है । लोगों को भय होता है कि जब वे यह अवस्था प्राप्त कर लेंगे, जब उन्हें ज्ञान हो जाएगा कि सभी एक हैं, तब उनके प्रेम का स्त्रोत सूख जाएगा, जीवन में जो कुछ मूल्यवान है, वह सब चला जाएगा, इस जीवन में और पर-जीवन में जो कुछ उन्हें प्रिय था, उसमें से कुछ भी न बचा रहेगा । किन्तु लोग एक बार भी यह सोचकर नहीं देखते कि जो लोग अपने सुख की चिन्ता छोड़ दिए हैं, वे ही जगत में सर्वश्रेष्ठ सेवक हुए हैं । मनुष्य तभी वास्तव में प्रेम करता है, जब वह देखता है कि उसके प्रेम का पात्र कोई क्षुद्र मर्त्य जीव नहीं है । मनुष्य तभी वास्तविक प्रेम कर सकता है, जब वह देखता है कि उसके प्रेम का पात्र एक मिट्टी का ढेला नहीं, अपितु स्वयं साक्षात् भगवान हैं । स्त्री यदि यह समझे कि उसके पति साक्षात् ब्रह्म-स्वरूप हैं, तो उनसे और भी अधिक प्रेम करेगी । पति भी यदि यह जाने कि स्त्री स्वयं ब्रह्म-स्वरूप है, तो वह भी स्त्री से अधिक प्रेम करेगा । सन्तान को ब्रह्म-स्वरूप देखने वाली माताएँ अपनी सन्तान से अधिक स्नेह कर सकेंगी । जो लोग यह जानेंगे कि उनके शत्रु साक्षात् ब्रह्म-स्वरूप हैं, तो वे लोग अपने महान शत्रुओं के प्रति भी प्रेम-भाव रख सकेंगे । जो लोग यह समझेंगे कि सज्जन व्यक्ति साक्षात् ब्रह्म-स्वरूप हैं, वे लोग पवित्र लोगों से प्रेम करेंगे । जो लोग यह जान लेंगे कि इन महादुष्टों के भी पीछे वे प्रभु ही विराजमान हैं, तो वे अत्यन्त अपवित्र व्यक्तियों से भी प्रेम करेंगे । जिनका क्षुद्र अहं पूर्णत: मर चुका है और उसके स्थान पर ईश्वर ने अधिकार जमा लिया है, वे लोग ही जगत के प्रेरक हो सकते हैं । उनके लिये समग्र विश्व दिव्य भाव से रूपान्तरित हो जाता है । जो कुछ भी दुखकर या क्लेशकर है, वह सब उनकी दृष्टि से लुप्त हो जाता है, सभी प्रकार के द्वन्द्व और संघर्ष समाप्त हो जाते हैं । तब यह जगत, जहाँ हम प्रतिदिन रोटी के एक टुकड़े के लिये झगड़ा और मारपीट करते हैं, उनके लिए कारागार होने के बदले एक क्रीड़ाक्षेत्र बन जाता है । तब जगत बड़ा सुन्दर रूप धारण कर लेता है । ऐसे ही व्यक्ति को यह कहने का अधिकार है कि ‘यह जगत कितना सुन्दर है !’ उन्हीं को यह कहने का अधिकार है कि सब मंगल-स्वरूप है ! धर्म की इस प्रत्यक्ष उपलब्धि से जगत का यह महान हित होगा कि ये अविराम विवाद, द्वन्द्व आदि सब दूर हो जाएँगे और जगत में शान्ति का राज्य हो जाएगा । यदि जगत के सभी लोग आज इस महान सत्य के एक बिन्दु की भी उपलब्धि कर सकें, तो उनके लिए यह सारा जगत एक दूसरा ही रूप धारण कर लेगा और यह सब झगड़ा समाप्त होकर शान्ति का राज्य आ जाएगा । यह घिनौना उतावलापन, यह स्पर्धा – जो हमें अन्य व्यक्तियों को ठेलकर आगे बढ़ निकलने के लिये बाध्य करती है, इस संसार से उठ जाएगी । इसके साथ-साथ सब प्रकार की अशान्ति, घृणा, ईष्र्या तथा सभी प्रकार की बुराइयाँ सदा के लिए चली जाएँगी । तब इस जगत में देवता निवास करेंगे । तब यही जगत स्वर्ग हो जाएगा । जब देवता देवता से खेलेगा, देवता देवता से मिलकर कार्य करेगा, देवता देवता से प्रेम करेगा, तब क्या इसमें बुराई रुक सकती है? ईश्वर की प्रत्यक्ष उपलब्धि की यही एक बड़ी उपयोगिता है । समाज में तुम जो कुछ भी देख रहे हो, वह सब उस समय परिर्वितत होकर एक दिव्य रूप धारण कर लेगा । तब तुम किसी मनुष्य को बुरा नहीं समझोगे । यही प्रथम महालाभ है, उस समय तुम लोग किसी अन्याय करनेवाले बेचारे नर-नारी की ओर घृणापूर्ण दृष्टि से नहीं देखोगे । ...तब तुममें ईर्ष्या अथवा दूसरों पर शासन करने का भाव नहीं रहेगा, वह सब चला जाएगा । तब प्रेम इतना प्रबल हो जाएगा कि फिर मानव-जाति को सत्पथ पर चलने के लिए चाबुक की आवश्यकता नहीं रह जाएगी । मैंने इतनी तपस्या करके यह सार समझा है कि हर जीव में वे ही विराजमान हैं, इसके सिवा ईश्वर और कुछ भी नहीं । जीवों पर दया करनेवाला ही ईश्वर की सेवा कर रहा है ।’’ बहु रूपों में खड़े तुम्हारे आगे, और कहाँ हैं ईश? व्यर्थ खोज यह, जीव-प्रेम की ही सेवा पाते जगदीश । तुमने पढ़ा है – मातृदेवो भव, पितृदेवो भव – ‘अपनी माता को ईश्वर समझो, अपने पिता को ईश्वर समझो’, परन्तु मैं कहता हूँ – दरिद्रदेवो भव, मूर्खदेवो भव – गरीब निरक्षर, मूर्ख और दुखी, इन्हें अपना ईश्वर मानो । इनकी सेवा करना ही परम धर्म समझो ।


Author:     स्वामी विवेकानन्द










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Title: आदर्श को पकड़े रहो

Author: स्वामी विवेकानन्द

Refrence: विवेक ज्योति



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आदर्श की उपलब्धि के लिये सच्ची इच्छा – यही पहला बड़ा कदम है । इसके बाद बाकी सब कुछ सहज हो जाता है । संघर्ष एक बड़ा पाठ है । याद रखो, संघर्ष इस जीवन में बड़ा लाभदायक है । हम संघर्ष में से होकर ही अग्रसर होते हैं – यदि स्वर्ग के लिए कोई मार्ग है, तो वह नरक में से होकर जाता है । नरक से होकर स्वर्ग – यही सदा का रास्ता है । जब जीवात्मा परिस्थितियों का सामना करते हुए मृत्यु को प्राप्त होती है, जब मार्ग में इस प्रकार सहस्त्रों बार मृत्यु होने पर भी वह निर्भीकता से संघर्ष करती हुई आगे बढ़ती जाती है, तब वह परम शक्तिशाली बन जाती है और उस आदर्श पर हँसती है, जिसके लिए वह अभी तक संघर्ष कर रही थी, क्योंकि वह जान लेती है कि वह स्वयं उस आदर्श से कहीं अधिक श्रेष्ठ है । स्वयं मेरी आत्मा ही लक्ष्य है, अन्य और कुछ भी नहीं, क्योंकि ऐसा क्या है, जिसके साथ मेरी आत्मा की तुलना हो सके? सुवर्ण की एक थैली क्या कभी मेरा आदर्श हो सकती है? कदापि नहीं ! मेरी आत्मा ही मेरा सर्वोच्च ध्येय है । अपने प्रकृत स्वरूप की अनुभूति ही मेरे जीवन का एकमात्र ध्येय है । दुनिया में ऐसी कोई वस्तु नहीं, जो पूर्णतया बुरी हो । यहाँ शैतान और ईश्वर – दोनों के लिए ही स्थान है, अन्यथा शैतान यहाँ होता ही नहीं । जैसे मैंने तुमसे कहा ही है, हम नरक में से होकर ही स्वर्ग की ओर कूँच करते हैं । हमारी भूलों की ही यहाँ उपयोगिता है । बढ़े चलो ! यदि तुम सचेत हो कि तुमने कोई गलत कार्य किया है, तो भी पीछे मुड़कर मत देखो । यदि पहले तुमने से गलतियाँ न की होतीं, तो क्या तुम मानते हो कि आज तुम जैसे हो, वैसे हो पाते? अत: अपनी भूलों को आशीर्वाद दो । वे अदृश्य देवदूतों के समान रही हैं । धन्य हो दु:ख ! धन्य हो सुख ! चिन्ता न करो कि तुम्हारे मत्थे क्या आता है । आदर्श को पकड़े रहो । बढ़ते चलो ! छोटी-छोटी बातों और भूलों पर ध्यान न दो । हमारी इस रणभूमि में भूलों की धूल तो उड़ेगी ही । जो इतने नाजुक हैं कि धूल सहन नहीं कर सकते, उन्हें पंक्ति से बाहर चले जाने दो । यदि एक आदर्श पर चलने वाला व्यक्ति हजार भूलें करता है, तो यह निश्चित है कि आदर्शविहीन व्यक्ति पचास हजार भूलें करेगा । अत: एक आदर्श रखना अच्छा है । इस आदर्श के सम्बन्ध में जितना हो सके, सुनना होगा; तब तक सुनना होगा, जब तक कि वह हमारे अन्दर प्रवेश नहीं कर जाता, हमारे मस्तिष्क में पैठ नहीं जाता, जब तक वह हमारे रक्त में घुसकर उसकी एक-एक बूँद में घुल-मिल नहीं जाता, जब तक वह हमारे शरीर के अणु-परमाणु में ओतप्रोत नहीं हो जाता । अत: पहले हमें यह आत्मतत्त्व सुनना होगा । कहा है, ‘‘हृदय पूर्ण होने पर मुख बोलने लगता है’’ – और हृदय के इस प्रकार पूर्ण होने पर हाथ भी कार्य करने लगते हैं । विचार ही हमारी कार्य-प्रवृत्ति की प्रेरक-शक्ति है । मन को सर्वोच्च विचारों से भर लो, दिन-पर-दिन इन्हीं भावों को सुनते रहो, माह-पर-माह इन्हीं का चिन्तन करो । प्रारम्भ में सफलता न भी मिले, पर कोई हानि नहीं; यह असफलता तो बिल्कुल स्वाभाविक है, यह मानव-जीवन का सौन्दर्य है । इन असफलताओं के बिना जीवन क्या होता? यदि जीवन में इस असफलता को जय करने की चेष्टा न रहती, तो जीवन धारण करने का कोई प्रयोजन ही न रह जाता । उसके न रहने पर जीवन का कवित्व कहाँ रहता? यह असफलता, यह भूल रहने से हर्ज भी क्या? मैंने गाय को कभी झूठ बोलते नहीं सुना, पर वह सदा गाय ही रहती है, मनुष्य कभी नहीं हो जाती । अत: यदि बार-बार असफल हो जाओ, तो भी क्या? कोई हानि नहीं, हजार बार इस आदर्श को हृदय में धारण करो और यदि हजार बार भी असफल हो जाओ, तो एक बार फिर प्रयत्न करो । सब जीवों में ब्रह्मदर्शन ही मनुष्य का आदर्श है । यदि सब वस्तुओं में उसको देखने में तुम सफल न होओ, तो कम-से-कम एक ऐसे व्यक्ति में, जिसे तुम सर्वाधिक प्रेम करते हो, उसका दर्शन करने का प्रयत्न करो, तदुपरान्त दूसरों में उसका दर्शन करने की चेष्टा करो । इसी प्रकार तुम आगे बढ़ सकते हो । आत्मा के सम्मुख तो अनन्त जीवन पड़ा हुआ है – अध्यवसाय के साथ लगे रहने पर तुम्हारी मनोकामना अवश्य पूर्ण होगी । एक विचार लो, उसी को अपना जीवन बनाओ – उसी का चिन्तन करो, उसी का स्वप्न देखो और उसी में जीवन बिताओ । तुम्हारा मस्तिष्क, स्नायु तथा शरीर के सर्वाङ्ग उसी विचार से पूर्ण रहें । दूसरे सारे विचार छोड़ दो । यही सिद्ध होने का उपाय है और इसी उपाय से बड़े-बड़े धर्मवीरों की उत्पत्ति हुई है । बाकी लोग बातें करने वाली मशीनें मात्र हैं ।


Author:     स्वामी विवेकानन्द










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Title: एकता की आवश्यकता

Author: स्वामी विवेकानन्द

Refrence: विवेक ज्योति



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इच्छाशक्ति ही जगत में अमोघ शक्ति है । ... वह कौन-सी वस्तु है, जिसके द्वारा कुल चार करोड़ अंग्रेज पूरे तीस करोड़ भारतवासियों पर शासन करते हैं? इस प्रश्न का मनोवैज्ञानिक समाधान क्या है? यही, कि वे चार करोड़ लोग अपनी-अपनी इच्छाशक्ति को एकत्र कर देते हैं अर्थात् शक्ति का अनन्त भण्डार बना लेते हैं और तुम तीस करोड़ लोग (भारत की तत्कालनी जनसंख्या) अपनी-अपनी इच्छाओं को एक दूसरे से पृथक् किए रहते हो । बस यही इसका रहस्य है कि वे संख्या में कम होकर भी तुम्हारे ऊपर शासन करते हैं । अत: संगठन ही शक्ति का मूल है । यदि भारत को महान बनाना है, उसका भविष्य उज्ज्वल बनाना है, तो इसके लिए आवश्यकता है – संगठन की, शक्ति-संग्रह की और बिखरी हुई इच्छाशक्ति को एकत्र करके उसमें समन्वय लाने की । अथर्ववेद संहिता का एक विलक्षण मन्त्र याद आ रहा है, जिसमें कहा गया है – तुम सब लोग एक-मन हो जाओ, सब लोग एक ही विचार के बन जाओ, क्योंकि प्राचीन काल में एक-मन होने के कारण ही देवताओं ने बलि पायी थी । देवता मनुष्य द्वारा इसीलिए पूजे गए कि वे एकचित्त थे । एक-मन हो जाना ही समाज-गठन का रहस्य है । यदि तुम ‘आर्य’ और ‘द्रविड़’, ‘ब्राह्मण’ जैसे तुच्छ विषयों को लेकर ‘तू-तू’ ‘मैं-मैं’ करोगे, झगड़े और पारस्परिक विरोध का भाव को बढ़ाओगे, तो समझ लो कि तुम उस शक्ति-संग्रह से दूर हटते जाओगे, जिसके द्वारा भारत का भविष्य बनने जा रहा है । इस बात को याद रखो कि भारत का भविष्य पूर्णत: इसी पर निर्भर करता है । बस, इच्छाशक्ति का संचय और उनका समन्वय करके उन्हें एकमुखी करना ही सारा रहस्य है । प्रत्येक चीनी अपनी शक्तियों को भिन्न-भिन्न मार्गों से परिचालित करता है, परन्तु मुट्ठी भर जापानी अपनी इच्छाशक्ति एक ही मार्ग से परिचालित करते हैं, और इसका जो फल हुआ, वह तुम लोगों से छिपा नहीं है । इसी तरह की बात सारे संसार में देखने में आती है । .. ये सब मतभेद और झगड़े एकदम बन्द हो जाने चाहिए । इस देश में अनेक पन्थ या सम्प्रदाय हुए हैं । आज भी ये काफी संख्या में हैं और भविष्य में भी बड़ी संख्या में होंगे । ... सम्प्रदाय अवश्य रहें, पर साम्प्रदायिकता दूर हो जाए । साम्प्रदायिकता से संसार की कोई उन्नति नहीं होगी, परन्तु सम्प्रदायों के बिना संसार का काम नहीं चल सकता । एक ही साम्प्रदायिक विचार के लोग सारे काम नहीं कर सकते । संसार की यह अनन्त शक्ति कुछ थोड़े-से लोगों के हाथों परिचालित नहीं हो सकती । यह बात समझ लेने पर यह भी हमारी समझ में आ जाएगा कि क्यों यह सम्प्रदाय भेदरूपी श्रमविभाग अनिवार्य रूप से हमारे भीतर आ गया है । भिन्न-भिन्न आध्यात्मिक शक्ति-समूहों का परिचालन करने के लिए सम्प्रदाय कायम रहें । परन्तु जब हम देखते हैं कि हमारे प्राचीन शास्त्र इस बात की घोषणा कर रहे हैं कि यह सब भेद-भाव केवल ऊपर का है, सतही मात्र है और इन सारी विभिन्नताओं के बावजूद इनको एक साथ बाँधे रहनेवाला परम मनोहर स्वर्ण सूत्र इनके भीतर पिरोया हुआ है, तब इसके लिए हमें एक-दूसरे के साथ लड़ने-झगड़ने की आवश्यकता दिखाई नहीं देती । ... यदि कोई तुमसे साम्प्रदायिक झगड़ा करने को तैयार हो, तो उससे पूछो, ‘क्या तुमने ईश्वर का दर्शन किया है? क्या तुम्हें कभी आत्म-दर्शन, प्राप्त हुआ है? यदि नहीं, तो तुम्हें ईश्वर के नाम का प्रचार करने का क्या अधिकार है? ... सबको अपने-अपने पथ से चलने दो, ‘प्रत्यक्ष अनुभूति’ की ओर अग्रसर होने दो । सभी अपने-अपने हृदय में उस सत्यस्वरूप आत्मा का दर्शन पाने का प्रयत्न करें । जब वे उस विराट अनावृत सत्य के दर्शन कर लेंगे, तभी उससे प्राप्त होने वाले अपूर्व आनन्द का अनुभव कर सकेंगे । आत्मोपलब्धि से प्रसूत होने वाला यह अपूर्व आनन्द कपोल-कल्पित नहीं है, वरन् भारत के प्रत्येक ऋषि ने, प्रत्येक सत्यद्रष्टा व्यक्ति ने इसका प्रत्यक्ष अनुभव किया है । तब उस आत्मदर्शी हृदय से स्वयं ही प्रेम की वाणी प्रस्फुटित होगी, क्योंकि उसे ऐसे परम पुरुष का स्पर्श प्राप्त हुआ है, जो स्वयं प्रेमस्वरूप है । बस, तभी हमारे सारे साम्प्रदायिक लड़ाई-झगड़े दूर होंगे । जाति, धर्म, भाषा तथा शासन-प्रणाली – ये सब एक साथ मिलकर एक राष्ट्र का निर्माण करते हैं । यदि एक-एक जाति को लेकर हमारे राष्ट्र से तुलना की जाए, तो हम देखेंगे कि जिन उपादानों से संसार के दूसरे राष्ट्र गठित हुए हैं, वे संख्या में यहाँ के उपादानों से कम हैं । यहाँ आर्य हैं, द्रविड़ हैं, तातार हैं, तुर्क हैं, मुगल हैं, यूरोपीय हैं, मानो संसार की सभी जातियाँ इस भूमि में अपना-अपना खून मिला रही है । भाषा का यहाँ एक विचित्र-सा जमावड़ा है, आचार-व्यवहारों के सम्बन्ध में दो भारतीय जातियों में जितना अन्तर है, उतना प्राच्य और यूरोपीय जातियों में भी नहीं है । हमारे पास एकमात्र सम्मिलन-भूमि है – हमारी पवित्र परम्परा, हमारा धर्म । एकमात्र सामान्य आधार वही है और उसी पर हमें संगठित होना पड़ेगा । यूरोप में राजनीतिक विचार ही राष्ट्रीय एकता का कारण है, परन्तु एशिया में राष्ट्रीय एकता का आधार धर्म है, अत: भारत के भावी संगठन की पहली शर्त के तौर पर इस धार्मिक एकता की ही आवश्यकता है ।


Author:     स्वामी विवेकानन्द










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Title: गुरु की आवश्यकता

Author: स्वामी विवेकानन्द

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प्रत्येक जीवात्मा का पूर्णत्व प्राप्त कर लेना बिल्कुल निश्चित है और अन्त में सभी इस पूर्णावस्था की प्राप्ति कर लेंगे । हम वर्तमान जीवन में जो कुछ हैं, वह हमारे पूर्व जीवन के कर्मों और विचारों का फल है, और हम जो कुछ भविष्य में होंगे, वह हमारे अभी के कर्मों और विचारों का फल होगा । पर, हम स्वयं ही अपना भाग्य निर्णय कर रहे हैं, इससे यह न समझ बैठना चाहिए कि हमें किसी बाहरी सहायता की आवश्यकता नहीं, बल्कि अधिकतर स्थलों में तो इस प्रकार की सहायता नितान्त आवश्यक होती है । जब ऐसी सहायता प्राप्त होती है, तो आत्मा की उच्चतर शक्तियाँ और संभावनाएँ उद्दीप्त हो जाती हैं, आध्यात्मिक जीवन जाग्रत हो जाता है, उसकी उन्नति वेगवती हो जाती है और अन्त में साधक पवित्र और सिद्ध हो जाता है । यह संजीवनी-शक्ति पुस्तकों से नहीं मिल सकती । इस शक्ति की प्राप्ति तो एक आत्मा एक दूसरी आत्मा से ही कर सकती है, – अन्य किसी से नहीं । हम भले ही सारा जीवन पुस्तकों का अध्ययन करते रहें और बड़े बौद्धिक हो जायें, पर अन्त में हम देखेंगे कि हमारी तनिक भी आध्यात्मिक उन्नति नहीं हुई है । यह बात सत्य नहीं कि उच्च स्तर के बौद्धिक विकास के साथ-साथ मनुष्य के आध्यात्मिक पक्ष की भी उतनी ही उन्नति होगी । पुस्तकों का अध्ययन करते समय हमें कभी-कभी यह भ्रम हो जाता है कि इससे हमें आध्यात्मिक सहायता मिल रही है; पर यदि हम ऐसे अध्ययन से अपने में होने वाले फल का विश्लेषण करें, तो देखेंगे कि उससे, अधिक से अधिक हमारी बुद्धि को ही कुछ लाभ होता है, हमारी अन्तरात्मा को नहीं । पुस्तकों का अध्ययन हमारे आध्यात्मिक विकास के लिये पर्याप्त नहीं है । यही कारण है कि यद्यपि लगभग हम सब आध्यात्मिक विषयों पर बड़ी पाण्डित्य-पूर्ण बातें कर सकते हैं, पर जब उन बातों को कार्यरूप में परिणत करने का, – यथार्थ आध्यात्मिक जीवन बिताने का अवसर आता है, तो हम अपने को सर्वथा अयोग्य पाते हैं । जीवात्मा की शक्ति को जाग्रत करने के लिए किसी दूसरी आत्मा से ही शक्ति का संचार होना चाहिए । जिस व्यक्ति की आत्मा से दूसरी आत्मा में शक्ति का संचार होता है, वह गुरु कहलाता है और जिसकी आत्मा में यह शक्ति संचारित होती है, उसे शिष्य कहते हैं । किसी भी आत्मा में इस प्रकार शक्ति-संचार करने के लिए आवश्यक है कि पहले तो, जिस आत्मा से यह संचार होता हो, उसमें स्वयं इस संचार की शक्ति विद्यमान रहे, और दूसरे, जिस आत्मा में यह शक्ति संचारित की जाय, वह इसे ग्रहण करने योग्य हो । बीज सजीव हो एवं भूमि भी अच्छी जुती हुई हो, और जब ये दोनों बातें मिल जाती हैं, तो वहाँ वास्तविक धर्म का अपूर्व विकास होता है । ‘यथार्थ धर्म-गुरु में अपूर्व योग्यता होनी चाहिए, और उसके शिष्य को भी कुशल होना चाहिए।’ जब दोनों ही अद्भुत और असाधारण होते हैं, तब अद्भुत आध्यात्मिक जागृति होती है, अन्यथा नहीं । ऐसे ही पुरुष वास्तव में सच्चे गुरु होते हैं, और ऐसे ही व्यक्ति सच्चे शिष्य या मुमुक्षु या आदर्श साधक कहे जाते हैं । अन्य सब लोग तो आध्यात्मिकता से खेल मात्र करते हैं । उनमें बस, थोड़ा सा कौतूहल भर उत्पन्न हो गया है, थोड़ी-सी बौद्धिक स्पृहा भर जग गयी है, पर वे अभी धर्म-क्षितिज की बाहरी सीमा पर ही खड़े हैं । इसमें सन्देह नहीं कि इसका भी कुछ महत्त्व अवश्य है, क्योंकि हो सकता है, कुछ समय बाद यही भाव सच्ची धर्म-पिपासा में परिर्वितत हो जाय और यह भी प्रकृति का एक बड़ा अद्भुत नियम है कि ज्यों ही भूमि तैयार हो जाती है, त्यों ही बीज भी आ जाता है, और वह आता भी है । ज्यों ही आत्मा की धर्म-पिपासा प्रबल होती है, त्यों ही धर्मशक्ति-संचारक पुरुष को उस आत्मा की सहायता के लिए आना ही चाहिए, और वे आते भी हैं । जब ग्रहीता की आत्मा में धर्म के प्रकाश की आकर्षण-शक्ति पूर्ण और प्रबल हो जाती है, तो इस आकर्षण से आकृष्ट प्रकाशदायिनी शक्ति स्वयं ही आ जाती है ।


Author:     स्वामी विवेकानन्द










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Title: भारत का भविष्य

Author: स्वामी विवेकानन्द

Refrence: विवेक ज्योति



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यह वही प्राचीन भूमि है, जहाँ दूसरे देशों को जानने से पहले तत्त्व ज्ञान ने आकर अपनी वासभूमि बनाई थी; यह वही भारत है, जहाँ के आध्यात्मिक प्रवाह का स्थूल प्रतिरूप उसके बहने वाले, समुद्राकार नद हैं, जहाँ चिरन्तन हिमालय श्रेणीबद्ध उठा हुआ अपने हिमशिखरों द्वारा मानो स्वर्गराज्य के रहस्यों की ओर निहार रहा है । यह वही भारत है, जिसकी भूमि पर संसार के सर्वश्रेष्ठ ऋषियों की चरण रज पड़ चुकी है । यहीं सबसे पहले मनुष्य-प्रकृति तथा अन्तर्जगत् के रहस्योद्घाटन की जिज्ञासाओं के अंकुर उगे थे । आत्मा का अमरत्व, अन्तर्यामी ईश्वर एवं जगत्प्रपंच तथा मनुष्य के भीतर सर्वव्यापी परमात्मा विषयक मतवादों का पहले पहल यहीं उद्भव हुआ था और यहीं धर्म और दर्शन के आदर्शों ने अपनी चरम उन्नति प्राप्त की थी । यह वही भूमि है, जहाँ से उमड़ती हुई बाढ़ की तरह धर्म तथा दार्शनिक तत्त्वों ने समग्र संसार को बार-बार प्लावित कर दिया, और यही वह भूमि है, जहाँ से पुन: ऐसी ही तरंगें उठकर निस्तेज जातियों में शक्ति और जीवन का संचार कर देगी । यह वही भारत है जो शताब्दियों के आघात, विदेशियों के शत शत आक्रमण और सैकड़ों आचार व्यवहारों के विपर्यय सहकर भी अक्षय बना हुआ है । यह वही भारत है जो अपने अनिवाशी वीर्य और जीवन के साथ अब तक पर्वत से भी दृढ़तर भाव से खड़ा है । आत्मा जैसे अनादि, अनन्त और अमृतस्वरूप है, वैसे ही हमारी भारत भूमि का जीवत्त है, और हम इसी देश की सन्तान हैं। भारत की सन्तानो, तुमसे आज मैं यहाँ कुछ व्यावहारिक बातें कहूँगा, और तुम्हें तुम्हारे पूर्व गौरव का स्मरण दिलाने का उद्देश्य केवल इतना ही है, कितनी ही बार मुझसे कहा गया है कि अतीत की ओर दृष्टि डालने से केवल मन की अवनति ही होती है और इससे कोई फल नहीं होता; अत: हमें भविष्य की ओर दृष्टि रखनी चाहिए । यह सच है । परन्तु अतीत से ही भविष्य का निर्माण होता है । अत: जहाँ तक हो सके, अतीत की ओर देखो, पीछे जो चिरन्तन निर्झर बह रहा है, आवंâठ उसका जल पियो और उसके बाद सामने देखो और भारत को उज्वलतर, महत्तर और पहले से भी अधिक ऊँचा उठाओ । हमारे पूर्वज महान थे । पहले यह बात हमें याद करनी होगी । हमें समझना होगा कि हम किन उपादानों से बने हैं, कौन-सा खून हमारी नसों में बह रहा है । उस खून पर हमें विश्वास करना होगा और अतीत के उसके कृतित्व पर भी, इस विश्वास और अतीत गौरव के ज्ञान से हम अवश्य ऐसे भारत की नींव डालेंगे, जो पहले से श्रेष्ठ होगा । अवश्य ही यहाँ बीच बीच में दुर्दशा और अवनति के युग भी रहे हैं, पर उनको मैं अधिक महत्त्व नहीं देता । हम सभी उसके विषय में जानते हैं । ऐसे युगों का होना आवश्यक था । किसी विशाल वृक्ष से एक सुन्दर पका हुआ फल पैदा हुआ, फल जमीन पर गिरा, मुरझाया और सड़ा, इस विनाश से जो अंकुर उगा, सम्भव है वह पहले के वृक्ष से बड़ा हो जाय । अवनति के जिस युग के भीतर से हमें गुजरना पड़ा, वे सभी आवश्यक थे । इसी अवनति के भीतर से भविष्य का भारत आ रहा है, वह अंकुरित हो चुका है, उसके नये पल्लव निकल चुके हैं और उस शक्तिधर विशालकाय ऊध्र्वमूल वृक्ष का निकलना शुरू हो चुका है और उसी के सम्बन्ध में मैं तुमसे कहने जा रहा हूँ । किसी भी दूसरे देश की अपेक्षा भारत की समस्याएँ अधिक जटिल और गुरुतर हैं । जाति, धर्म, भाषा, शासन-प्रणाली – ये ही एक साथ मिलकर एक राष्ट्र की सृष्टि करते हैं । यदि एक एक जाति को लेकर हमारे राष्ट्र से तुलना की जाय तो हम देखेंगे कि जिन उपादानों से संसार के दूसरे राष्ट्र संगठित हुए हैं, वे संख्या में यहाँ के उपादानों से कम हैं । यहाँ आर्य हैं, द्रविड़ हैं, तातार हैं, तुर्वâ हैं, मुगल हैं, यूरोपीय हैं, – मानो संसार की सभी जातियाँ इस भूमि में अपना अपना खून मिला रही हैं । भाषा का यहाँ एक विचित्र ढंग का जमावड़ा है, आचार-व्यवहारों के सम्बन्ध में दो भारतीय जातियों में जितना अन्तर है, उतना पूर्वी और यूरोपीय जातियों में नहीं । हमारे पास एकमात्र सम्मिलन भूमि है, हमारी पवित्र परम्परा, हमारा धर्म । एक मात्र सामान्य आधार वही है और उसी पर हमें संगठन करना होगा । यूरोप में राजनीतिक विचार ही राष्ट्रीय एकता का कारण है । किन्तु एशिया में राष्ट्रीय ऐक्य का आधार धर्म ही है, अत: भारत के भविष्य संगठन की पहली शर्त के तौर पर उसी र्धािमक एकता की ही आवश्यकता है । देश भर में एक ही धर्म सबको स्वीकार करना होगा । एक ही धर्म से मेरा क्या मतलब है? यह उस तरह का एक ही धर्म नहीं, जिसका ईसाइयों, मुसलमानों या बौद्धों में प्रचार है । हम जानते हैं हमारे विभिन्न सम्प्रदायों के सिद्धान्त तथा दावे चाहे कितने ही विभिन्न क्यों न हों, हमारे धर्म में कुछ सिद्धान्त ऐसे हैं जो सभी सम्प्रदायों द्वारा मान्य हैं । इस तरह हमारे सम्प्रदायों के ऐसे कुछ सामान्य आधार अवश्य हैं, उनको स्वीकार करने पर हमारे धर्म में अद्भुत विविधता के लिये गुंजाइश हो जाती है, और साथ ही विचार और अपनी रुचि के अनुसार जीवन निर्वाह के लिए हमें सम्पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त हो जाती है । हम लोग, कम से कम वे जिन्होंने इस पर विचार किया है, यह बात जानते हैं । और अपने धर्म के ये जीवनप्रद सामान्य तत्त्व हम सबके सामने लायें और देश के सभी स्त्री-पुरुष, बाल-वृद्ध, उन्हें जानें-समझें तथा जीवन में उतारें – यही हमारे लिए आवश्यक है । सर्वप्रथम यही हमारा कार्य है । (विवेकानन्द साहित्य, खण्ड-५, पृष्ठ-१७९)


Author:     स्वामी विवेकानन्द










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Title: श्रीकृष्ण का सन्देश

Author: स्वामी विवेकानन्द

Refrence: विवेक ज्योति



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आपमें से जो गीता के पाठक है, वे जानते हैं कि उस ग्रन्थ का मूल सिद्धान्त है अनासक्ति, उसकी मुख्य शिक्षा है – अनासक्त रहो । आपके हृदय के प्रेम पर केवल एक व्यक्ति का अधिकार है – केवल उसका अधिकार है, जो कभी बदलता नहीं । वह कौन है? वह केवल ईश्वर ही है । इसलिए अपना हृदय किसी परिवर्तनशील वस्तु या व्यक्ति को सर्मिपत मत करो, इसका अन्त दुखमय होगा । यदि तुम किसी व्यक्ति-विशेष को अपना हृदय अर्पित कर देते हो, तो उसकी मृत्यु के पश्चात सारा संसार तुम्हारे लिए दु:खपूर्ण बन जायगा । आज जिसे अपने से अभिन्न मानकर तुम हृदय सर्मिपत कर चुके हो, सम्भव है कल उसी से तुम्हारा वैमनस्य हो जाए । जिस पति को आपने अपना स्नेह अर्पित किया है, वह आपसे कभी झगड़ा कर सकता है । यदि उसे पत्नी को देते हो, तो कल उसकी मृत्यु हो सकती है । यही संसार की रीति है । इसलिए श्रीकृष्ण ने गीता में उपदेश दिया है – एकमात्र ईश्वर ही ऐसा है जो कभी नहीं बदलता । उसका स्नेह अनन्त और अपरिवर्तनशील है । हम कहीं भी रहें और कुछ भी करें, पर उस दयानिधि की दया में कोई अन्तर नहीं आता, उसके स्नेह की सरिता सदैव उसी प्रकार हमारे लिए प्रवाहित होती रहती है । उसमें कभी परिवर्तन नहीं होता, हमारे अधम कार्यों पर भी वह कभी क्रुद्ध नहीं होता और वह हम पर क्रुद्ध हो भी तो क्यों ? आपका नटखट बच्चा कितनी भी शरारत क्यों न करता हो, पर आप उस पर कभी नहीं बिगड़ते । हम भविष्य में क्या होने वाले है, कितने महान होने वाले हैं – यह क्या ईश्वर नहीं जानता? उसे ज्ञान है कि यथाकाल हम सब पूर्णता प्राप्त कर लेंगे । इसलिए हममें सैकड़ों दोष रहने पर भी वह विचलित नहीं होता, उसका धैर्य असीम है । अतएव हमें उससे प्रेम करना चाहिए, प्राणिमात्र से उसमें ही तथा उसके माध्यम से ही प्रेम करना चाहिए । यही गीता की शिक्षा का सार है, और इसी को अपने जीवन का मूल मन्त्र मानकर जीवन पथ पर अग्रसर होना चाहिए । अपनी पत्नी को आप अवश्य प्रेम करो, पर पत्नी के लिए नहीं । ‘हे प्रिये, पत्नी को पति प्रिय लगता है, किन्तु वह पति के लिए नहीं । उसका कारण है उसमें वर्तमान अनन्त परमात्मा ।’ वेदान्त दर्शन कहता है कि पति-पत्नी के स्नेह-भाव में, यद्यपि पत्नी सोचती है कि वह अपने स्वामी को प्रेम कर रही है, वस्तुत: स्नेह का विषय ईश्वर ही है, जो पति में अवस्थित है । वही एकमेव आकर्षण है; उसके अतिरिक्त अन्य कोई उसका स्नेहभाजन नहीं है । पत्नी अज्ञानवश नहीं जानती कि अपने पति से स्नेह करने में वह केवल ईश्वर को ही प्यार कर रही है । और यह अज्ञान ही भविष्य में उसके दुख का कारण बन जाता है । ज्ञानपूर्वक किये जाने पर यही कार्य मुक्ति का मार्ग बन जाता है । यही हमारे शास्त्रों का उपदेश है । जहाँ भी प्रेम है, आनन्द का बिन्दु भी विद्यमान है, वहीं ईश्वर विद्यमान है; क्योंकि ईश्वर रसस्वरूप है, प्रेमस्वरूप है, आनन्द-स्वरूप है । उसके अभाव में प्रेम असम्भव है । श्रीकृष्ण के उपदेशों का यही भाव है । सारे भारत पर सारी हिन्दू जाति पर श्रीकृष्ण ने इस उपदेश की अमिट छाप छोड़ दी है । वह उनकी नस-नस में प्रवाहित हो रहा है । जब कोई हिन्दू कोई कार्य करता है, यहाँ तक कि जब वह पानी भी पीता है, तो कहता है, ‘इस कार्य के सभी शुभ फल ईश्वरार्पित हैं ।’ कोई सत्कार्य करते समय एक बौद्ध यही संकल्प करता है कि ‘इस कार्य के सारे शुभ फल संसार को प्राप्त हों और जगत के दुख व कष्ट मुझे मिलें ।’ हिन्दू कहता है, ‘मैं आस्तिक हूँ, ईश्वरविश्वासी हूँ, और ईश्वर सर्वव्यापी एवं सर्वशक्तिमान है, सकल आत्माओं की अन्तरात्मा है । इसलिए यदि मैं अपने कार्यों का पुण्य, उनके शुभ फल ईश्वरार्पण कर दूँ, तो यह सर्वश्रेष्ठ त्याग होगा, क्योंकि अन्ततोगत्वा मेरे सत्कार्य, मेरे कार्यों के शुभ फल निश्चित ही सारे संसार को प्राप्त होंगे ।’ भगवान श्रीकृष्ण के उपदेशों का यह केवल एक पहलू है । उनकी दूसरी महान् शिक्षा यह है : संसार में रहकर जो व्यक्ति कार्य करता है और अपने कार्यों के शुभाशुभ फल ईश्वरार्पित कर देता है, वह संसार के पापों से निर्लिप्त रहता है । जिस भाँति कमल जल में जन्म लेकर भी जल से निर्लिप्त रहता है, उसी भाँति ऐसा व्यक्ति सांसारिक कर्मों को करते हुए भी, उन्हें ईश्वर को सर्मिपत कर देने पर दोष-लिप्त नहीं होता । प्रबल कर्मशीलता – श्रीकृष्ण की एक और महान् शिक्षा है । गीता का उपेदश है – कार्यरत रहो, रात दिन कार्य करते रहो । स्वभावत: यह शंका उपस्थित होगी कि निरन्तर कर्म से शान्ति कैसे उपलब्ध होगी? यदि मनुष्य दिन रात, आमरण, अश्व की भाँति जीवन की गाड़ी खींचता रहे, और उसे खींचते ही खींचते इहलीला समाप्त कर दे, तो मानव जीवन का मूल्य ही क्या रहा? भगवान श्री कृष्ण कहते हैं – नहीं कर्मरत व्यक्ति अवश्य शान्ति का अधिकारी बनेगा । कार्यक्षेत्र से पलायन करना शान्ति का पथ नहीं है । यदि सम्भव हो, तो अपने कर्तव्य-कर्म छोड़ दो तथा किसी पर्वत शिखर पर जीवन यापन करो; किन्तु वहाँ भी मन स्थिर नहीं रहेगा, वहाँ भी वह यन्त्रवत् भ्रमण करता रहेगा ।


Author:     स्वामी विवेकानन्द