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रामकृष्ण मिशन की दृष्टि में सेवा

स्वामी विवेकानन्द के स्वप्नों को युवक साकार करें

गुरु घासीदास का जीवन और सन्देश






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Title: रामकृष्ण मिशन की दृष्टि में सेवा

Author: स्वामी भूतेशानन्द

Refrence: विवेक ज्योति



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दक्षिणेश्वर में एक दिन श्रीरामकृष्ण ने अर्धबाह्य दशा में कहा था – ‘जीव के प्रति दया नहीं, शिव-भाव से जीव-सेवा ।’ उस दिन स्वामी विवेकानन्द (तत्कालीन नरेन्द्रनाथ) के अतिरिक्त उपस्थित लोगों में से अन्य कोई भी व्यक्ति श्रीरामकृष्ण की इस उक्ति का तात्पर्य हृदयंगम नहीं कर सका । स्वामीजी ने कहा था – ‘‘ठाकुर के श्रीमुख से आज जो अद्भुत सत्य सुना है, उसका भविष्य में सर्वत्र प्रचार करूँगा ।’’ सेवा-धर्म का जो बीज श्रीरामकृष्ण अपने जीवन-काल में बो गये थे, उसने परवर्ती काल में रामकृष्ण मठ और रामकृष्ण मिशन की कार्यधारा में विशाल-वृक्ष के रूप में आत्म-विकास किया । स्वामीजी और उनके सभी गुरुभाई इस ‘शिव-भाव से जीव-सेवा’ के मूर्त विग्रह थे । स्वामीजी ने कहा है – ‘यह जान लेना कि अवतार के अन्तरंग पार्षद केवल वे ही होते हैं, जो दूसरों के हित में सर्वत्यागी होते हैं, जो भोग-सुख का काकविष्ठा की तरह ‘जगद्धिताय’ संसार के कल्याण के लिए परित्याग करते हैं तथा ‘परहिताय’ जीवन का अन्त कर देते हैं । इसीलिए बहुजनहिताय बहुजनसुखाय, इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए स्वामीजी ने मठ की स्थापना की, जिसका मूल मन्त्र है – ‘आत्मनो मोक्षार्थं जगद्धिताय च’ – अपनी मुक्ति और जगत का कल्याण करना । मुर्शिदाबाद में इस आदर्श को सर्वप्रथम वास्तविक स्वरूप प्रदान किया स्वामीजी के अनन्य गुरुभाई स्वामी अखण्डानन्दजी ने । इसके बहुत पहले मथुरबाबू के साथ तीर्थ यात्रा के समय वैद्यनाथ धाम में आर्त और दरिद्र लोगों की पीड़ा से श्रीरामकृष्ण का हृदय विदीर्ण हुआ था । उन लोगों की सेवा के लिए वे तीर्थयात्रा नहीं जाने को भी तैयार थे । वह घटना इस प्रकार है – मथुरबाबू के साथ काशी, वृन्दावन आदि तीर्थों का दर्शन करने जाते समय वैद्यनाथ धाम के निकट एक गाँव में लोगों का दुख-दारिद्र्य देखकर श्रीरामकृष्ण का हृदय करुणा से भर गया । उन्होंने मथुर से कहा – ‘तुम तो माँ के दीवान हो । इन सबको सिर में लगाने के लिए तेल और एक-एक वस्त्र दो । एक दिन भरपेट भोजन करा दो । पहले तो मथुर बाबू थोड़ी दुविधा में पड़ गये । बोले –‘बाबा, तीर्थ में बहुत खर्चे होंगे । यहाँ तो अनेक लोगों को देखता हूँ । इन लोगों को भोजन देने से रुपयों की कमी हो सकती है । ऐसी स्थिति में क्या कहते हैं? उस समय ग्राम-वासियों का दु:ख देखकर श्रीरामकृष्ण के नेत्रों में अनवरत अश्रुपात हो रहे थे । उन्होंने कहा – ‘धत्, तुम्हारी काशी मैं नहीं जाऊँगा ।’ इतनी बात कहकर वे बच्चों की तरह हठ कर उन लोगों के बीच में जा बैठे । इसके बाद की घटना सबको मालूम है । उस दिन ठाकुर ने स्वयं ही सेवा-व्रत के आदर्श को यथार्थ में प्रतिष्ठित कर दिया था । आज से सौ वर्ष पूर्व १८९३ ई. के मई महीने में मुर्शिदाबाद के दुर्भिक्ष की करुण कथा सुनकर स्वामीजी का हृदय भी विगलित हो गया था एवं स्वामी अखण्डानन्द को सेवाकार्य के लिए उन्होंने केवल उत्साहित ही नहीं किया, बल्कि आर्थिक सहायता भी प्रदान की थी । संघनायक स्वामीजी की प्रेरणा से रामकृष्ण मिशन के प्रथम संगठित सेवाव्रत का शुभारम्भ तभी से हुआ था । अखण्डानन्दजी को कथित उनकी अग्निमयी वाणी आज भी सब के प्राणों में उत्साह और उद्दीपन का संचार करती है । ‘गेरुआ वस्त्र भोग के लिए नहीं है । यह महाकार्य का प्रतीक है – मनसा वाचा कर्मणा ‘जगद्धिताय’ करना होगा । तुमने पढ़ा है ‘मातृदेवो भव’ मैं कहता हूँ, ‘दरिद्रदेवो भव, मूर्खदेवो भव ।’ दरिद्र, मूर्ख, अज्ञानी, दुखी ये ही तुम्हारे देवता हों ।’ इनकी सेवा को ही परमधर्म समझना । ठाकुर का सम्पूर्ण जीवन ही दूसरों के लिये समर्पित था । दूसरों के प्राणों में थोड़ी सान्त्वना देने के लिए ठाकुर की करुणापूर्ण पुकार सबके हृदय का स्पर्श करती है । इनकी तप:पूत देह इतनी कोमल थी कि द्वार-द्वार जाकर नित्यानन्द की भाँति ज्ञान-दान करने, प्रेम-वितरण करने की उनकी क्षमता नहीं थी । गिरीश बाबू ने एक दिन ठाकुर के समीप जाकर देखा, उनकी आँखों से झर-झर आँसू प्रवाहित हो रहे हैं और दुख से कह रहे हैं, ‘निताई (नित्यानन्द) ने पैदल चलकर घर-घर में प्रेम-वितरण किया था । किन्तु मैं तो गाड़ी नहीं होने पर चल ही नहीं पाता हूँ ।’ फिर कभी दूसरे समय में कहा था – ‘मैं साग खाकर भी दूसरों का उपकार करूँगा ।’ जीव के उद्धार के लिये ही श्रीरामकृष्ण का आगमन हुआ । वे माँ के निकट कातर भाव से प्रार्थना करते हैं, ‘माँ मुझे बेहोश मत करो ! माँ मुझे ब्रह्मज्ञान मत दो !’ वे दुखतप्त पीड़ितों के प्राणों में आशा और आनन्द का संचार करना चाहते थे । दूसरी ओर प्लेग की सेवा के लिए बेलूड़ मठ को बेच देने में भी स्वामीजी के मन में थोड़ी-सी भी दुविधा नहीं थी । अपनी सन्तानों को दुखार्त लोगों की सेवा करते देखकर वे गम्भीर रूप से अभिभूत हो जाते थे । अपने उसी आनन्द की अभिव्यक्ति को उन्होंने कुमारी हेल को लिखित एक पत्र में इस प्रकार की है – ‘‘तुम्हारा हृदय यह देखकर आनन्द से प्रफुल्लित हो जाता कि किस तरह मेरे वत्सगण अकाल, व्याधि और दुख-कष्ट के बीच में काम कर रहे हैं । हैजे से पीड़ित ‘पेरिया’ की चटाई के पास बैठे उसकी सेवा कर रहे हैं और भूखे चाण्डाल को खिला रहे हैं ।’’ क्षणभंगुर मानव-जीवन मनुष्य के जीवन में स्थायित्व कितना कम है – आयुर्नश्यति पश्यतां प्रतिदिनं याति क्षयं यौवनं प्रत्यायान्ति गता: पुनर्न दिवसा: कालो जगद्भक्षक: लक्ष्मीस्तोयतरंगभंगचपला विद्युच्चलं जीवितं तस्मान्मां शरणागतं शरणद त्वं रक्ष रक्षाधुना ।। (श्रीशिवापराधक्षमापनस्तोत्रम् – १३) प्रतिदिन आयु नष्ट हो रही है, यौवन का क्षय हो रहा है । बीता हुआ दिन फिर वापस नहीं आता । काल संसार का भक्षक है और लक्ष्मी (धन-सम्पत्ति) जल की तरंग-भंग की भाँति चपला है । जीवन विद्युत के समान क्षणभंगुर है । स्वामीजी ने कहा है – ‘यह जीवन क्षणभंगुर है, संसार का धन, मान, ऐश्वर्य सभी क्षणिक हैं । केवल वे ही वास्तविक रूप से जीवित हैं, जो दूसरों के लिये जीते हैं । स्वामीजी के विचारानुसार दूसरों को प्रेम करना और दूसरे के दुख से दुखित होना एवं दुख दूर करने के लिए आन्तरिक प्रयास करना, यही वास्तविक मानव धर्म है । स्वामीजी कहते हैं – ‘‘क्या तुम लोग मनुष्य को प्रेम करते हो? ...दरिद्र दुखी, दुर्बल, ये सब क्या तुम्हारे ईश्वर नहीं हैं? पहले उनकी उपासना क्यों नहीं करते हो?’’ वे कहते हैं – ‘जीव-सेवा से बढ़कर और दूसरा कोई धर्म नहीं है ।’’ आज भी लाखों व्यक्ति दरिद्रता की मार से जर्जर हो जीवन का अन्त कर देते हैं । भूख नहीं मिटा पाने के कारण माँ अपनी सन्तान की हत्या कर रही है । समाचार पत्र पढ़ने पर नित्य ही उसका करुणापूर्ण वर्णन देखने को मिलता है । हमलोग देखकर भी उसे नहीं देखते, उसके निवारण का प्रयास नहीं करते । यह क्या हमलोगों की आत्म-प्रवंचना नहीं है? हम लोगों की इसी जड़ता को फटकारते हुए स्वामीजी कहते हैं – ‘‘स्वार्थपरायणता – पहले अपने लाभ के लिए सोचना ही सबसे बड़ा पाप है । जो पहले यह सोचता है कि पहले मैं खाऊँगा, दूसरे की अपेक्षा मैं अधिक धनवान होऊँगा, मैं समस्त सम्पदाओं का स्वामी होऊँगा, जो यह सोचता है कि मैं दूसरे से पहले स्वर्ग जाऊँगा, मैं दूसरे से पहले मुक्ति-लाभ करूँगा, वही व्यक्ति स्वार्थपरायण है । स्वार्थरहित व्यक्ति कहता है – मैं सबके पहले जाना नहीं चाहता, सबके बाद मैं जाऊँगा । मैं स्वर्ग जाना नहीं चाहता । यदि अपने भाई-बन्धुओं की सहायता करने के लिए नरक जाना पड़े, उसके लिए भी तैयार हूँ ।’ वास्तविक सेवक को निश्चय ही स्वार्थरहित होना होगा । तभी सेवा पूजा में परिणत होगी एवं सही ढंग से ऐसा कर सकने पर वही हमलोगों की मुक्ति की सीढ़ी होगी । मुक्ति मुष्टिगत होगी – ‘मुक्ति: करफलायते ।’ सेवा का अर्थ केवल अनेक लोगों को अन्न, वस्त्र देना नहीं है, यह आत्मोन्नति का मार्ग है, निष्काम कर्मसाधना का क्षेत्र है । इस निष्काम कर्म के फलस्वरूप चित्त शुद्ध होता है तथा श्रीभगवान सर्वत्र ही विराजमान हैं, यह हृदयंगम होता है । उन्होंने (भगवान ने) जो हमलोगों को सेवा का सुयोग प्रदान किया है, यह हमलोगों की परम उपलब्धि है । इसे मन में रखकर कृतज्ञतापूर्वक अपने अहंकार और स्वार्थपरता का त्याग कर यदि मात्र एक दरिद्र व्यक्ति की भी श्रद्धापूर्वक साधारण सेवा की जाय, तो इससे भी हमारा जीवन धन्य हो जाएगा । शास्त्र कहते हैं – ‘श्रद्धया देयम् । अश्रद्धयाऽदेयम् – श्रद्धापूर्वक देना होगा, श्रद्धाहीन होकर नहीं । यथार्थ त्याग और सेवा का मनोभाव नहीं रहने पर मनुष्य की सही-सही सेवा नहीं की जा सकती । एक बार पूजनीय शरत् महाराज (स्वामी सारदानन्द ) ने एक व्यक्ति को सेवा-केन्द्र में भेजने के पहले कहा था – ‘लोगों के द्वारा दिये गए रुपये तू लोगों को देगा, तो फिर तू क्या देगा?’ फिर स्वयं ही उन्होंने उत्तर देते हुए कहा था – तू अपना हृदय देगा, प्रेम देगा, प्राण देगा ।’ अर्थात् कर्म और उपासना का समन्वय होता है, वे सामान्य मनुष्य नहीं होते, वे महापुरुष सबके पूज्य होते हैं । श्रीरामकृष्ण हमलोगों को वह शक्ति और सामर्थय दें, जिससे उनके आदर्श को कार्य में परिणत कर हमलोग अपने इस मानव जीवन को सार्थक कर सकें । स्वामीजी ने अपने पश्चिमी देशों की यात्रा समाप्त कर स्वदेश वापस आकर अपने देश और मानव जाति के कल्याण में मन, वचन और शरीर से अपने आप को सर्मिपत कर देने का आह्वान किया था । इस उद्देश्य से ही उन्होंने श्रीरामकृष्ण नामांकित ‘रामकृष्ण मिशन’ की आज से सौ वर्ष पूर्व ‘१ मई, १८९७ ई. में स्थापना की थी । उन्होंने कहा था – ब्रह्म और परमाणु, कीट तक, सब भूतों का है आधार । एक प्रेममय, प्रिय, इन सबके चरणों में दो तन-मन वार ।। बहु रूपों से खड़े तुम्हारे आगे और कहाँ है ईश? व्यर्थ खोज ! यह जीव प्रेम की ही सेवा पाते जगदीश ।। स्वामीजी की यह अमृतवाणी हमलोगों के मन में सदैव जाग्रत रहे । (स्वामी भूतेशानन्दजी महाराज रामकृष्ण संघ के १२वें संघाध्यक्ष थे ।)


Author:     स्वामी भूतेशानन्द










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Title: स्वामी विवेकानन्द के स्वप्नों को युवक साकार करें

Author: स्वामी प्रपत्त्यानन्द

Refrence: विवेक ज्योति



Article:

मानव-जीवन के महान पारखी स्वामी विवेकानन्द ने आज से लगभग १२० वर्ष पहले युवकों का आह्वान किया था । यद्यपि भारत की वर्तमान परिस्थितियाँ वैसी नहीं हैं । आज प्रत्येक क्षेत्र में भारत द्रुत गति से विकास कर रहा है । भारत के युवा विश्व के विभिन्न देशों में जाकर अपनी तीक्ष्ण बुद्धि, मेधा-शक्ति एवं दृढ़ मनोबल का परिचय देकर संसार को आश्चर्यचकित कर रहें है । स्वामी विवेकानन्द ने जिस विकसित भारत का स्वप्न देखा था या कन्याकुमारी की शिला पर बैठकर जिस भविष्य के सर्वश्रेष्ठ भारत का दिव्य दर्शन किया था, उसका शुभारम्भ आज स्पष्ट दिख रहा है । स्वामी विवेकानन्द के सपनों के भारत के निर्माण का यह आरम्भ है, केवल श्रीगणेश ही है । लक्ष्य अभी भी दूर है । क्योंकि हम भौतिक सुविधाओं के अर्जन, विकास एवं भोग में पाश्चात्य देशों को टक्कर दे रहे हैं, किन्तु जिन मानवीय गुणों के विकास से इन सुविधाओं का सदुपयोग होता है, उसका हमारे जीवन में अभाव है, यहाँ तक कि नित्य ह्रास-सा प्रतीत हो रहा है । इस महान भारत देश में आज भी कुछ लोग उच्च शिक्षा की सुविधाओं, सुस्वास्थ्य और भोजन से वंचित हैं । युवक-युवतियाँ हताश होकर आत्महत्या कर रहे हैं । पारिवारिक कलह, मानवों में ईर्ष्या-द्वेष का विषाक्त वातावरण है । चोरी, घुसखोरी, भ्रष्टाचार, नागरिक असुरक्षा, आतंकवाद के तांडव से जन-मानस व्यथित, चिन्तित और असुरक्षित है । इसीलिए भौतिक संसाधनों की प्रचुरता होते हुए भी हम सच्ची सुख-शान्ति और परस्पर प्रेम से वंचित हैं, एक निष्छल स्नेहिल-दृष्टि प्राप्त करने को लालायित हैं । जब तक व्यक्ति में सद्गुणों का विकास कर उसे वास्तविक मानव के रूप में उन्नत नहीं किया जाता और उसके बाद मानवता से परे मनुष्य के दिव्य स्वरूप में प्रतिष्ठित नहीं किया जाता, तब तक स्वामीजी के स्वप्नों का भारत नहीं होगा । भारत के महान क्रान्तिकारी और महान योगी श्री अरविन्द जी ने मानव-जीवन को विविध दृष्टिकोणों से देखा है । वे अपने एक पत्र में लिखते हैं –‘‘मनुष्य एक मनोमय सत्ता है, जो सजीव जड़त्व के अन्दर सशरीरी हुयी है । इस मनुष्य की समस्त चेतना को ऊपर उठाना होगा, जिसमें वह समस्त उच्चतर चेतना के साथ संयुक्त हो जाय । साथ ही उच्चतर चेतना का भी मन, प्राण और शरीर में उतर आना होगा । इस तरह बाधायें दूर हो जायेंगी और उच्चतर चेतना सम्पूर्ण निम्न प्रकृति को अपने हाथ में लेकर उसे अतिमानस की शक्ति में रूपान्तरित कर सकेंगी ।’ (श्री अरविन्द के पत्र, भाग –४ पृष्ठ, ४१-४२) मनुष्य का स्वरूप उसके जन्म-जन्मान्तरों के कुसंस्कारों के कारण दमित और आवृत्त है, उसको प्रकट करने तथा उसे सर्वोच्च स्तर पर प्रतिष्ठित करने से ही जीवन की सार्थकता सिद्ध होगी । स्वामी विवेकानन्द ने शरीर-मन-बुद्धि सबको मानव कल्याण में सदुपयोग करते हुए इन सबकी आत्मा में प्रतिष्ठित होने की बात कही है । हमारे देश के युवकों का व्यक्तित्व सर्वतोमुखी विकसित हो, ऐसी उनकी प्रबल इच्छा थी । हमारे देश के युवकों का शरीर सबल हो, उनका मनोबल ऊँचा हो, शक्तिशाली मन हो, उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति हो, उनकी बुद्धि निर्मल, प्रखर एवं सदा रचनात्मक कार्यों में संलग्न, दृढ़ निश्चयी हो । आत्मस्वरूप का ज्ञाता आत्मबोधमय हो । युवकों में निस्वार्थता, प्रेम, त्याग, दया और मानवीय संवेदना होनी चाहिए । आदर्श युवक को कैसा होना चाहिये? इस सम्बन्ध में मुझे कहीं से एक पत्रक मिला, उसमें युवा-चरित्र के बड़े महत्वपूर्ण बिन्दुओं का उल्लेख किया गया है – ‘‘युवकों का मुखमण्डल तेजस्वी हो, शरीर में शक्ति हो, मन में उत्साह हो, सद्बुद्धि हो, विवेक हो, हृदय में करुणा हो, मातृभूमि के प्रति प्रेम हो, इन्द्रियों पर संयम हो, मन स्थिर हो, आत्मविश्वास दृढ़ हो, इच्छाशक्ति प्रबल हो, शूरवीर हो, सिंह के समान निर्भय हो, लक्ष्य जिसका ऊँचा हो, सत्य ही जिसका ईश्वर हो, सभी कुव्यसनों से मुक्त हो, जीवन में अनुशासन हो, मधुर प्रेममयी वाणी हो, सारे संसार को ही अपना कुटुम्ब समझता हो, गुरुजनों के प्रति आदर हो, अभिभावकों के प्रति श्रद्धा हो, गरीबों का मित्र हो, सेवा के लिये सदा तत्पर हो, देवताओं और भगवान के प्रति भक्ति-विश्वास हो, नैतिक जीवन हो और चरित्र शुद्ध हो ।’’ एक आदर्श युवक में ये सारे गुण अनिवार्य हैं । जब ऐसे तेजस्वी, ओजस्वी युवक होंगे, इस देश के नागरिक होंगे, तभी स्वामी विवेकानन्द का स्वप्न साकार होगा । आज से सौ वर्ष से भी अधिक पहले सबसे पहले स्वामी विवेकानन्द जी ने भारत के युवकों के उज्ज्वल भविष्य को देखा था । उन्होंने अपने स्वप्नों के भारत के निर्माण में युवकों की भूमिका एवं उत्तरदायित्व का दर्शन किया था । आज हम देख भी रहे हैं कि विश्व में एकमात्र भारत सर्वाधिक युवाशक्ति का देश है । तभी तो स्वामी विवेकानन्द ने अपने जीवन की विरासत और इस देश का सम्पूर्ण उत्तरदायित्व युवकों को ही सौंपा था । वे लिखते हैं – ‘‘मैं बारह वर्ष तक हृदय में यह बोझ ढोते हुये और सिर में यह विचार लिये तथाकथित धनिकों के द्वार-द्वार पर घूमा । हृदय का रक्त बहाते हुये मैं आधी पृथ्वी का चक्कर लगाकर इस अजनबी देश (अमेरिका) में सहायता माँगने आया । परन्तु ईश्वर सर्वशक्तिमान हैं, मैं जानता हूँ, वे मेरी सहायता करेंगे । मैं इस देश में भूख या जा़ड़े से भले ही मर जाऊँ, पर हे युवको ! मैं गरीबों, अशिक्षितों और उत्पीड़ितों के लिये इस सहानुभूति तथा प्राणपण चेष्टा को तुम्हें थाती के रूप में सौंपता हूँ । जाओ, इसी क्षण उन पार्थ-सारथी श्रीकृष्ण के मन्दिर में जाओ, जो गोकुल के दीन-हीन ग्वालों के सखा थे, जो गुहक चाण्डाल को भी गले लगाने में नहीं हिचके, जिन्होंने अपने बुद्धावतार-काल में धनिकों का निमन्त्रण अस्वीकार कर एक गणिका के भोजन का निमन्त्रण स्वीकार किया और उसे उबारा । जाओ, उनके पास जाकर साष्टांग प्रणाम करो और उन दीन-हीन और उत्पीड़ितों के लिये, जिनके लिये प्रभु युग-युग में अवतार लिया करते हैं और जिन्हें वे सबसे अधिक प्रेम करते हैं, उनके सम्मुख अपने सम्पूर्ण जीवन की महाबलि दो । प्रतिज्ञा करो कि अपना सारा जीवन इन तीस करोड़ लोगों के उद्धार-कार्य में लगा दोगे, जो दिनो-दिन अवनति के गर्त में गिरते जा रहे हैं ।’’ स्वामीजी दृढ़ विश्वास से कहते हैं, ‘‘मेरा विश्वास नयी पीढ़ी में है, मेरे कार्यकर्ता उन्हीं में से आयेंगे और सिंहों की भाँति सभी समस्याओं का समाधान निकालेंगे ।’’ स्वामी विवेकानन्द के इस विश्वास को भारतीय युवकों ने टूटने नहीं दिया, बल्कि उसे सँवारा है और आज इस देश को एक विकाशील राष्ट्र और स्वाभिमानी स्वावलम्बी राष्ट्र के रूप में विश्व के सम्मुख लाकर खड़ा कर दिया है । यहाँ तक कि अन्तरिक्ष में मंगल में पहुँचकर विकसित देशों के शिखर पर विद्यमान हैं । ऐसी युवाशक्ति वन्दनीय है, जिसका वरण स्वयं स्वामीजी ने अपने कार्यों के लिये किया और वे युवक वन्दनीय हैं, जो स्वामीजी के द्वारा सौंपे हुये विरासत की सुरक्षा एवं संवर्धन में अपने जीवन को सर्मिपत कर रहे हैं । किन्तु दुर्भाग्यवश अभी भी हमारे देश के बहुत से युवक जाग्रत नहीं है, इसलिये हम स्वामीजी के स्वप्नों को अल्पांश ही पूरा कर सके हैं, अधिकांश कार्य अभी भी शेष है । देश के नव-निर्माण हेतु ऐसे चरित्रवान युवकों के निर्माण में अभिभावकों और शिक्षकों की महान भूमिका है । वे घर में अपने परिवार में, शिक्षा संस्थानों में, एक अच्छा शान्त स्नेहिल, प्रेममय अनुशासनयुक्त वातावरण तैयार करें, जिसमें हमारे बच्चों का सर्वांगीण विकास हो सके और वे भारतमाता के योग्य सपूत बन सकें, तथा विश्व की अमूल्य विरासत बन सकें । प्रस्तुत लेख में जीवन के सर्वांगीण विकास में प्रमुख सहायक कुछ बिन्दुओं पर चिन्तन कर उसके सूक्ष्म गहन तत्त्वों की ओर भी सबकी दृष्टि आर्किषत करने का प्रयास किया गया है, जिसे समझकर सभी लोग अपनी क्षमतानुसार उसका अपने जीवन में आचरण कर सकें । भारत के कर्णधार युवावर्ग अपनी ऊर्जा को व्यर्थ अपव्यय न कर उसका सदुपयोग करके अपने व्यक्तित्व का समुचित विकास कर सकें और स्वामी विवेकानन्द के महान गौरवशाली भारत के निर्माण में सहभागी बनकर अपने जीवन को धन्य बना सकें । आइये! हम स्वामी विवेकानन्द के स्वप्नों के भारत के निर्माण में अपने जीवन को अध्यास्त्र बनाकर पुन: भारत को विश्व के स्वर्ण सिंहासन पर विराजित करने का प्राण-पण से प्रयत्न करें !


Author:     स्वामी प्रपत्त्यानन्द










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Title: गुरु घासीदास का जीवन और सन्देश

Author: डॉ. ओमप्रकाश वर्मा

Refrence: विवेक ज्योति



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छत्तसीगढ़ के सांस्कृतिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक चेतना के विकास में गुरु घासीदासजी का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है । एक ऐसे समय में घासीदास जी का जन्म हुआ था, जब छत्तीसगढ़ का समाज दिशाहीनता का शिकार हो गया था । छत्तीसगढ़ की सामाजिक, राजनैतिक एवं आर्थिक स्थिति अस्त-व्यस्त हो गई थी । नैतिक मूल्यों का विघटन हो रहा था । समाज में जाति-पांति और छुआछूत की भावना बहुत अधिक बढ़ गयी थी । समाज के लोग मानसिक रूप से अत्यन्त दुर्बल हो गये थे । न्याय पाने के लिए संघर्ष करने की शक्ति पूर्णत: समाप्त हो गई थी। समाज में न्याय की व्यवस्था ही नहीं रह गई थी । छुआछूत का प्रभाव इतना अधिक था कि दण्ड का निर्धारण भी जाति के वर्गीकरण के आधार पर किया जाता था । यदि कोई उच्च वर्ण का व्यक्ति, किसी निम्न वर्ग के व्यक्ति की हत्या कर देता, तो उसे केवल कुछ जुर्माना भरना पड़ता था, पर यदि कोई निम्न वर्ण का व्यक्ति किसी उच्च वर्ण के व्यक्ति की हत्या कर देता, तो उसे सबके सामने फाँसी दे दी जाती । समाज में बाह्य आडम्बर, कर्मकाण्ड और अन्धविश्वास पूर्ण रूप से फैल गया था । धर्म का यथार्थ स्वरूप समाज के लोग भूल चुके थे और अन्धविश्वास और कर्मकाण्ड को ही धर्म का वास्तविक स्वरूप समझ रहे थे । सर्वत्र अज्ञान और अशान्ति का वातावरण फैल गया था । तामसिकता प्रबल हो गई थी । ऐसी विपन्नावस्था में गिरे हुए छत्तीसगढ़ में ज्ञान का प्रकाश बिखेरते हुए गुरु घासीदास जी का आगमन हुआ । गुरु घासीदास जी ने आकर अपने व्यक्तित्व और कृतित्त्व के द्वारा समाज की समस्याओं का समाधान किया । जब हम उनके जीवन पर विचार करते हैं, तब उनके जीवन में अद्भुत विलक्षणता पाते हैं । अनेक अर्थों में उनका जीवन विलक्षण था । वे निरक्षर थे । धर्मग्रन्थों का उन्होंने अध्ययन नहीं किया था, किन्तु छत्तीसगढ़ की आध्यात्मिक आकाश-गंगा में वे सूर्य के समान चमकते रहे । उनका जीवन इसलिए भी विलक्षण रहा कि वे गरीब थे, उनके पास कोई धन नहीं था, परन्तु उनके पास ऐसी आध्यात्मिक सम्पदा थी, जिसके प्रभाव से आर्किषत होकर एक बृहत्तर जन-समुदाय उनके चारों ओर मँडराया करता था । वे छत्तीसगढ़ की पुण्य-धरा में जन्में, पले-बढ़े एक ऐसे महापुरुष थे, जिन्होंने सत्य के संधान के लिए युग के प्रयोजन के अनुरूप एक नया पथ प्रर्दिशत किया । वे जीवन भर कठिनाइयों और संघर्षों से जूझते रहे । अपने जीवन में कभी पराजय स्वीकार नहीं किया । वे सत्य के पथ पर सदा बढ़ते रहे और समाज को एक अच्छा जीवन जीने के लिए प्रेरित किया । लोगों में आध्यात्मिक चेतना के विकास हेतु उन्होंने सतनाम पन्थ की स्थापना की । आप सभी जानते हैं कि गुरु घासीदास जी का जन्म रायपुर जिले के गिरौदपुरी ग्राम में १८ दिसम्बर, १७५६ में हुआ था । वह स्थान जहाँ उनका जन्म हुआ, आज बहुत बड़ा तीर्थ क्षेत्र बन गया है । वे पढ़े-लिखे नहीं थे, किन्तु बचपन से ही चिन्तक प्रवृत्ति के थे । ऐसे कहा जाता है कि वे अपने भाइयों के साथ तीर्थ-यात्रा के लिए जा रहे थे, तभी मार्ग में सोनाखान के जंगलों में उन्हें सत्य का साक्षात्कार हो गया । वे चिन्तन तो करते ही थे, सत्य के संधान की प्रवृत्ति तो उनमें थी ही । सोनाखान की पहाड़ियों में एक तेन्दू के वृक्ष के नीचे उन्हें सत्य ज्ञान की उपलब्धि हुई । भगवान बुद्ध को भी ऐसे ही सत्य का साक्षात्कार हुआ था, जब उन्हें सत्य का साक्षात्कार हुआ, तो उनके जीवन की गुत्थियाँ सुझल गर्इं, ज्ञान के प्रकाश से उनका जीवन आलोकित हो गया । मुण्डक उपनिषद में कहा गया है कि जब व्यक्ति को सत्य का साक्षात्कार होता है, तब उसकी स्थिति कैसी हो जाती है? – भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशया: । क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ।। २/८ – हृदय की ग्रन्थि का भेदन हो जाता है, सभी प्रकार के संशय दूर हो जाते हैं । सभी कर्मों का क्षय हो जाता है । ऐसा व्यक्ति सदा आनन्द के सागर में डूबा रहता है । गुरु घासीदास की अवस्था भी ऐसी ही हो गई । किन्तु गुरु घासीदास केवल आत्मानन्द में ही डूबे रहनेवाले व्यक्ति नहीं थे । उनके जीवन का एक और महत्तर प्रयोजन था । एक बार नरेन्द्रनाथ (स्वामी विवेकानन्द) से रामकृष्ण परमहंस ने पूछा – बेटा, तू क्या चाहता है? तब नरेन्द्र ने कहा था – ‘‘महाराज मैं चाहता हूँ कि निरन्तर समाधि में डूबा रहूँ । शरीर की मुझे कोई सुधि न रहे । श्रीरामकृष्ण को खुश होना चाहिए था कि कैसा योग्य शिष्य मिला है, जो धन-सम्पत्ति की कामना नहीं कर रहा है, राज-सुख की कामना नहीं कर रहा है, पत्नी-पुत्र की कामना नहीं कर रहा है । सदैव ईश्वर के आनन्द में डूबा रहना चाहता है । यही समाधि की अवस्था आध्यात्मिक जीवन का परम प्राप्तव्य है । परन्तु श्रीरामकृष्ण देव प्रसन्न नहीं हुए । उन्होंने नरेन्द्रनाथ को धिक्कारते हुए कहा – ‘‘अरे बेटा, मैं तो समझा था कि तू विशाल वट-वृक्ष की भाँति होगा जिसके छाया तले बहुत से लोग विश्रान्ति का अनुभव करेंगे, किन्तु मैं देख रहा हूँ कि तू बहुत स्वार्थी हो गया है । तू अपनी ही मुक्ति के पीछे पड़ा हुआ है । अरे बेटा । इससे भी ऊँची अवस्था होती है ।’’ बाद में श्रीरामकृष्ण देव ने बता दिया कि वह ऊँची अवस्था है – ‘शिवभाव से जीवसेवा’ । अर्थात् अभावग्रस्त लोगों को ईश्वर मानकर सेवा करना । गुरु घासीदास जी को भी अपने जीवन का प्रयोजन स्पष्ट हो गया था । उन्हें लगा कि अब उन्हें समाधि के आनन्द में नहीं डूबना है । समाज की सेवा करनी है । वे समाज की सेवा में लग गए । वे तत्कालीन समाज में फैली कुरीतियों को दूर करने लगे । उन्होंने छत्तीसगढ़ के विभिन्न स्थानों का भ्रमण किया । वे दन्तेवाड़ा गए । दन्तेवाड़ा में उन दिनों नर-बलि की प्रथा थी । नर-बलि की प्रथा को उन्होंने जघन्य अपराध सिद्ध किया और लोगों के जीवन में सत्य-धर्म की प्रतिष्ठा की । इस सत्य धर्म के आधार पर सतनाम पन्थ की स्थापना की । उन्होंने बताया कि सत्य धर्म का आश्रय लेकर प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में शान्ति और सत्य की उपलब्धि कर सकता है । ढोंग और ढकोसले से उन्हें बहुत पीड़ा होती थी । वे हृदय की पवित्रता में विश्वास करते थे । उन्होंने नर-बलि और पशु-बलि की प्रथा को भी बन्द किया । समस्त पशु-जगत के प्रति गुरु घासीदास जी के हृदय में बहुत दया का भाव था । विशेष रूप से बैलों के प्रति उनके मन में बहुत प्यार था । क्योंकि बैल कृषकीय जीवन के प्रमुख आधार थे । न केवल मनुष्य, न केवल पशु; समस्त जीव-जगत के प्रति गुरु घासीदास के मन में बड़ा आदर का भाव था । अँवरा और धँवरा के प्रतीक के माध्यम से उन्होंने वृक्षों की रक्षा का महाभियान प्रारम्भ किया था । आज हम वृक्षों को बचाने की बात कर रहे हैं । आज के पर्यावरणविद् जिस बात को महत्त्वपूर्ण बता रहे हैं, गुरु घासीदास जी ने आज से लगभग ढाई सौ साल पहले, मानो वृक्षों की रक्षा का एक महाभियान प्रारम्भ किया था । सम्पूर्ण जीव-जगत, चर-अचर, जड़-चेतन, सबके प्रति उनके हृदय में बड़ा सम्मान और प्रेम था । भारतीय संस्कृति के मूल तत्त्व का साक्षात्कार उन्होंने अपने हृदय में किया । ज्ञान की उच्च अवस्था में प्रतिष्ठित होकर उन्होंने जो ज्ञान-वारि प्रवाहित की, उसमें अवागाहन कर छत्तीसगढ़ का जन समाज अपने आपको धन्य समझने लगा । शताब्दियों से निरन्तर गरीबी, अशिक्षा और पीड़ा में डूबे हुए लोगों को ऐसा लगा कि उनको भी सब के समान जीने का अधिकार है । गुरु घासीदास जी के सान्निध्य में रहकर उन्हें भी जीवन की सार्थकता का बोध हुआ । बहुत से लोग गुरु घासीदास जी के शिष्य बन गये । उनके जीवन से प्रभावित होकर विभिन्न जातियों के लोग उनके पन्थ में सम्मिलित हुए और मदिरापान, मांसाहार छोड़कर शुद्ध शाकाहरी हो गए । ढकोसला, आडम्बर, अन्धविश्वास, सब उन्होंने त्याग दिया और शुद्ध सात्त्विक जीवन बिताने लगे । गुरु घासीदासजी ने जीवन में सत्य को अपनाने के लिए और जीवन में धन्यता प्राप्त करने के लिए सात सूत्र बतलाए । ईसा ने ओल्ड टेस्टामेंट में दस सूत्र बताएँ हैं । भगवान बुद्ध ने जीवन में धन्यता प्राप्त करने के लिए आठ सूत्र अर्थात् ‘अष्टांग मार्ग’ बताया है । घासीदास जी ऐसे महापुरुष हुए जिन्होंने सात सूत्र बताए । ईश्वर है कि नहीं इसके लिए बहुत विवाद में पड़ने की आवश्यकता नहीं है । जीवन में पालन करने के लिए गुरु घासीदासजी ने सात सामान्य सूत्र बतलाए हैं । इससे जीवन धन्य हो जाएगा । १. सत्य नाम का आश्रय लीजिए, वही ईश्वर का दूसरा नाम है २. मूर्तिपूजा का निषेध ३. मांसाहार न करें ४. मदिरा पान मत कीजिए ५. छुआछूत न मानें ६. परस्त्री को माता के समान समझें और ७. दोपहर के बाद बैलों से खेत मत जोतो, उन्हें विश्राम दो । ये सात दिशा-निर्देश गुरु घासीदास जी ने दिए और इन दिशा-निर्देर्शों का पालन कर व्यक्ति अपने जीवन में सुख-शान्ति का अनुभव कर सकता है तथा अपने जीवन में सत्य की उपलब्धि कर सकता है । हमारे उपनिषद में कहा गया है कि आध्यात्मिक जीवन का मार्ग अत्यधिक कठिन है – उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत । क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ।। कठोपनिषद १/३/१४ यह कठोपनिषद का सुन्दर श्लोक है जिसका अर्थ है – मानव जीवन की पूर्णता का पथ वैसा ही कठिन है, जैसे छुरे की नोक पर चलना । घासीदास जी ने जीवन के इस कठिन मार्ग को बहुत सरल बना दिया है । प्रत्येक व्यक्ति के लिए उन्होंने सात सूत्रों का सहज मार्ग बतलाया कि इनका यदि आप पालन करेंगे, तो आपके जीवन में शान्ति होगी और सुख आएगा । गुरु घासीदास समता मूलक समाज की स्थापना पर बल देते थे । ऊँच-नीच के भेदभाव को उन्होंने कभी नहीं माना । हमारे उपनिषदों में तो यह कहा गया है कि एक ही ईश्वर विभिन्न रूपों में प्रकट हो रहा है । श्वेताश्वतर उपनिषद (४/३-४) में दो बड़े सुन्दर श्लोक आते हैं – त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारी । त्वं जीर्णो दण्डेन वञ्चसि त्वं जातो भवसि विश्वतोमुख:।। हे ईश्वर ! तुम्हीं स्त्री हो, तुम्ही पुरुष हो, तुम्ही कुमार अथवा कुमारी हो । तुम्ही वृद्ध होकर लाठी के सहारे चलते हो तथा तुम ही विराट के रूप में प्रकट होकर सब ओर मुखवाले हो जाते हो । तुम्हीं नीले रंग के पतंग हो, हरे रंग के आँख वाले पक्षी हो, तुम्ही वह मेघ हो जिसमें बिजली अपनी चमक बता जाती है, तुम्ही बसन्त आदि ऋतुएँ हो, सप्त समुद्र हो, क्योंकि तुमसे ही सम्पूर्ण लोक उत्पन्न हुए हैं । तुम्ही अनादि प्रवृत्तियों के स्वामी और सर्वत्र सबमें विद्यमान हो । ऐसे एकत्व का महाभाव हमारे भारतीय दर्शन में दिया गया है । गुरु घासीदास ने ऊँच-नीच के भाव को त्यागकर समतामूल्य समाज की स्थापना की । उनके सतनाम पन्थ का द्वार उन सभी लोगों के लिए खुला था, जो सतनाम पन्थ में आस्था रखते थे । यही कारण है कि गुरु घासीदास के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर अन्य बहुत-सी जातियों के लोग सतनामी हो गये । ऐसा कहा जाता है कि तेलासी ग्राम में संभवत: सन् १८४२ में एक विराट सम्मेलन हुआ था, जिसमें विभिन्न जाति के लोग सम्मिलित हुए थे । वहाँ केवल पिछड़ी जाति के लोग ही नहीं थे, अपितु अनेक सवर्ण लोग भी थे और उन्होंने भी सतनाम पन्त में प्रवेश लिया । इस प्रकार समानता के आधार पर एक वर्ग-भेदविहीन समाज की पहली बार स्थापना हुई । ऐसा कहा जाता है कि सतनामियों में मिलने वाले सवर्णों के अनेक गोत्रनाम जैसे चतुर्वेदी, पाणीग्राही, कश्यप, भारद्वाज, बघेल आदि उसी के परिणाम हैं । छत्तीसगढ़ के इतिहास में गुरु घासीदास का यह महत्त्वपूर्ण योगदान है कि उन्होंने जातीय विद्वेष को दूर कर एक समतामूलक समाज की स्थापना की । समाज में उन्होंने नारी को पुरुषों के समान अधिकार एवं सम्मान दिया । उन्होंने तत्कालीन युग में प्रचलित वाममार्गीय संस्कृति पर जमकर प्रहार किया, जहाँ मांस-भक्षण, मदिरा-पान और नारी-सेवन का धड़ल्ले से प्रचार था । प्रारम्भ में वाममार्गियों ने उनका विरोध किया, किन्तु वे गुरु घासीदास के आध्यात्मिक तेज से शीघ्र ही पराभूत हो गये । उन्होंने जादु-टोना, धार्मिक कुरीतियों और अन्धविश्वास पर भी जमकर प्रहार किया और लोगों को बताया कि बाबा, तान्त्रिक, बैग, गुनिया ये सब हमारे जीवन की समस्याओं का समाधान नहीं कर सकते । हमें अपने पुरुषार्थ से अपनी समस्याओं का समाधान करना चाहिए । इस प्रकार अपने जीवन और सन्देशों से गुरु घासीदास ने अपने युग को एक नयी दिशा दी । वे मानों आधुनिक भारतीय नवजागरण के पुरोधा थे । राजा राममोहन राय को भारतीय नवजागरण का पुरोधा माना जाता है, परन्तु गुरु घासीदास ने राजा राममोहन राय से पहले ही नवजागरण का संदेश दिया । राजा राममोहन राय ने सन् १८२८ में ब्रह्म समाज की स्थापना की, जबकि गुरु घासीदास ने सन् १८२० में ही सतनाम पन्थ स्थापित कर नवजागरण का संदेश दिया । राजा मोहन राय का नवजागरण पाश्चात्य विचारों से प्रभावित था, किन्तु गुरु घासीदास का नवजागरण मूल भारतीय परम्परा से नि:सृत हुआ था । निरक्षर होते हुए भी उन्होंने चरम सत्य की अनुभूति की थी । उनकी अनुभूतियों में वेदान्त तत्त्व का निचोड़ है । उस गहन अनुभूति को छत्तीसगढ़ी भाषा में जन-सामान्य के लिए रखा और इस प्रकार छत्तीसगढ़ी भाषा को मानो देवभाषा का रूप प्रदान किया । गद्य में दिए गए उनके उपदेश अमृत वाणी के नाम से जाने जाते हैं तथा पद्य में दिए गए उपदेश ‘पंथीगीत’ में निहित हैं । अपना सारा जीवन सत्यज्ञान की साधना में सर्मिपत कर वे २० फरवरी, १८५० को महासमाधि में लीन हुए । वे एक सफल क्रान्तिदर्शी, महान समाज-सुधारक, अनुभूतिसम्पन्न तत्त्वदर्शी, गरीबों और दलितों के मसीहा, युगपुरुष और युग प्रणेता थे । ऐसे महामानव को शत-शत प्रणाम !


Author:     डॉ. ओमप्रकाश वर्मा